तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसी लिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते
मोहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौट कर नहीं आते
जिन्हें सलीक़ा है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते
ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते
बिसात-ए-इश्क़ पे बढ़ना किसे नहीं आता
ये और बात कि बचने के घर नहीं आते
'वसीम' ज़ेहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
ग़ज़ल
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
वसीम बरेलवी