तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ूँ के आँसू टपक रहे हैं
सिपहर-ए-उल्फ़त के हैं सितारे कि शाम-ए-ग़म में चमक रहे हैं
अजीब है सोज़-ओ-साज़-ए-उल्फ़त तरब-फ़ज़ा है गुदाज़-ए-उल्फ़त
ये दिल में शोले भड़क रहे हैं कि लाला ओ गुल महक रहे हैं
बहार है या शराब-ए-रंगीं नशात-अफ़रोज़ कैफ़-आगीं
गुलों के साग़र छलक रहे हैं गुलों पे बुलबुल चहक रहे हैं
जहाँ पे छाया सहाब-ए-मस्ती बरस रही है शराब-ए-मस्ती
ग़ज़ब है रंग-ए-शबाब-ए-मस्ती कि रिंद ओ ज़ाहिद बहक रहे हैं
मगर 'असर' है ख़मोश ओ हैराँ हवास गुम चाक दामाँ
लबों पे आएँ नज़र परेशाँ तो रुख़ पे आँसू टपक रहे हैं
ग़ज़ल
तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ूँ के आँसू टपक रहे हैं
असर सहबाई