तुम्हारे साथ कई राब्ते नज़र आए
ग़मों के दौर तलक सिलसिले नज़र आए
गिरा था ज़ेहन के दरिया में सोच कर कंकर
फिर उस के बा'द कई दाएरे नज़र आए
जहाँ जहाँ पे तवक़्क़ो' थी मंज़िलों की हमें
वहाँ वहाँ पे नए रास्ते नज़र आए
हर एक सम्त मनाज़िर थे शहर-ए-माज़ी के
जिधर निगाह उठी आइने नज़र आए
सफ़र कठिन तो न लगता था चाहतों का मगर
जो चल पड़े तो कई मरहले नज़र आए
जहाँ पे डूब गया था वो शख़्स दरिया में
वहाँ से उठते हुए बुलबुले नज़र आए
हम अपनी जान हथेली पे रख के घर से 'नसीम'
निकल पड़े तो कई मोजिज़े नज़र आए

ग़ज़ल
तुम्हारे साथ कई राब्ते नज़र आए
मोहम्मद नसीम कुरैशी