तुम्हारे हिज्र का सदक़ा उतार फेंकता है
दिलेर शख़्स है ख़्वाहिश को मार फेंकता है
बड़े बड़ों को ठिकाने लगा दिया उस ने
ये इश्क़ लाश भी सहरा के पार फेंकता है
ये कैसे शख़्स के हाथों में दे दिया ख़ुद को
फ़लक की सम्त मुझे बार बार फेंकता है
मैं जानता हूँ मोहब्बत की फ़स्ल बोएगा
ज़मीं पे अश्क जो ज़ार-ओ-क़तार फेंकता है
समय की तुंद-मिज़ाजी न पूछ मुझ से 'हसन'
ये बे-लगाम हर इक शहसवार फेंकता है
ग़ज़ल
तुम्हारे हिज्र का सदक़ा उतार फेंकता है
अताउल हसन