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तुम ने जब घर में अंधेरों को बुला रक्खा है | शाही शायरी
tumne jab ghar mein andheron ko bula rakkha hai

ग़ज़ल

तुम ने जब घर में अंधेरों को बुला रक्खा है

आबिद आलमी

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तुम ने जब घर में अंधेरों को बुला रक्खा है
उठ के सो जाओ कि दरवाज़े पे क्या रक्खा है

हर किसी शख़्स के रोने की सदा आती है
फिर किसी शख़्स ने बस्ती को जगा रक्खा है

अपनी ख़ातिर भी कोई लफ़्ज़ तराशें यारो
हम ने किस वास्ते यूँ ख़ुद को भुला रक्खा है

देखने को है बदन और हक़ीक़त ये है
एक मलबा है जो मुद्दत से उठा रक्खा है

तू अगर था तो बहुत दूर थे हम तुझ से कि अब
तू नहीं है तो तुझे पास बिठा रक्खा है

हम किसी तरह तुझे ढूँड लें मुमकिन ही नहीं
तू ने हर राह को सहरा से मिला रक्खा है