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तुम नहीं समझे कभी इन की ज़बाँ | शाही शायरी
tum nahin samjhe kabhi inki zaban

ग़ज़ल

तुम नहीं समझे कभी इन की ज़बाँ

किर्ति रतन सिंह

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तुम नहीं समझे कभी इन की ज़बाँ
दामन-ए-गुल माँगती हैं तितलियाँ

आज भी औरत के हिस्से आग है
कितनी भी बे-शक हों उस पे डिग्रियाँ

पूछ बैठे थे तुम्हीं कल रोक कर
वर्ना क्यूँ हम खोलते अपनी ज़बाँ

कर ले ख़िदमत अब तो तू माँ बाप की
और बस कुछ रोज़ हैं ये जिस्म-ओ-जाँ

तुम भले कितना भी उस को कोस लो
मामता में माँ न खोले है ज़बाँ

हो सकेगा दर्द सर का कम तभी
गोद में रख कर जो माँ दे थपकियाँ

इस 'रतन' ने जी लिए कितने भरम
आप इस का ज़िक्र ही छोड़ो मियाँ