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तुम ख़ुनुक जज़्बा हो बे-ताबी-ए-फ़न क्या जानो? | शाही शायरी
tum KHunuk jazba ho be-tabi-e-fan kya jaano?

ग़ज़ल

तुम ख़ुनुक जज़्बा हो बे-ताबी-ए-फ़न क्या जानो?

परवेज़ शाहिदी

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तुम ख़ुनुक जज़्बा हो बे-ताबी-ए-फ़न क्या जानो?
क्या गुज़रती है दम-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न क्या जानो?

ख़ून है दिल में तुम्हारे अभी अफ़्सुर्दा-ख़िराम
सुर्ख़ क्यूँ होते हैं रुख़्सार-ए-चमन क्या जानो?

मैं हूँ कितने क़द-ओ-गेसू के जहाँ का मे'मार
सरगिराँ मुझ से हैं क्यूँ दार-ओ-रसन क्या जानो?

तुम तो करते हो मिरी क्लिक-ए-सुख़न को पाबंद
कौन है कातिब-ए-तक़दीर-ए-वतन क्या जानो?

मैं कि हूँ ख़ाक-नशीं दुश्मन-ए-जाम-ए-ख़ुसरव
मैं ही पीता हूँ मय-ए-तख़्त-फ़गन क्या जानो?

तुम को है नाज़ कि जकड़े हुए हो वक़्त के पाँव
क्यूँ बदलता है ज़माने का चलन क्या जानो?

तुम समझते ही नहीं अहल-ए-गुलिस्ताँ की ज़बाँ
मुझ से क्या कहते हैं ये सर्व-ओ-समन क्या जानो?

तुम तो हो बाइस-ए-अफ़्सुर्दगी-ए-हाल-ए-हुनर
मैं हूँ ताबानी-ए-मुस्तक़बिल-ए-फ़न क्या जानो?

जिन को तुम देते हो शोरीदा-सरी का इल्ज़ाम
हैं वही ख़ाक-बसर ताज-शिकन क्या जानो?