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तुम कभी माइल-ए-करम न हुए | शाही शायरी
tum kabhi mail-e-karam na hue

ग़ज़ल

तुम कभी माइल-ए-करम न हुए

हंस राज सचदेव 'हज़ीं'

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तुम कभी माइल-ए-करम न हुए
मेरी क़िस्मत के दूर ग़म न हुए

अश्क-रेज़ी से हम हुए बे-दम
तेरे दामन के तार नम न हुए

हम ने तौर-ए-वफ़ा नहीं बदला
तेरे ज़ुल्म-ओ-सितम भी कम न हुए

थक गए राह की सऊबत से
मेरे साथी मिरे क़दम न हुए

रास्ते में जो थक के बैठ गए
ज़िंदगी-भर वो ताज़ा-दम न हुए

मुल्तफ़ित वो रहे ज़माने पर
मोरिद-ए-लुत्फ़ एक हम न हुए

जिन की ख़ातिर 'हज़ीं' उठाए ग़म
वो भी अपने शरीक-ए-ग़म न हुए