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तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो | शाही शायरी
tum jaano tumko ghair se jo rasm-o-rah ho

ग़ज़ल

तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो

मिर्ज़ा ग़ालिब

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तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो

your wish, if friendly with my rival you do choose to be
what sin accrues if you still keep enquiring after me

बचते नहीं मुवाख़ज़ा-ए-रोज़-ए-हश्र से
क़ातिल अगर रक़ीब है तो तुम गवाह हो

nobody from punishment will judgement day then spare
for if my rival murders, witness you will have to bear

क्या वो भी बे-गुनह-कुश ओ हक़-ना-शनास हैं
माना कि तुम बशर नहीं ख़ुर्शीद ओ माह हो

you are not human I concede, the sun and moon are you
do they also murder innocents and then usurp their due?

उभरा हुआ नक़ाब में है उन के एक तार
मरता हूँ मैं कि ये न किसी की निगाह हो

protruding from her veil I see, there is a thread awry
I die of envy as I dread, 'tis someone's evil eye

जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो

when the tavern is no more, why bans should elsewhere be?
be it mosque, madrasaa or else maybe monastery

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
लेकिन ख़ुदा करे वो तिरा जल्वा-गाह हो

praises of paradise we hear are all true, I agree
but I wish that God ordains, your parlour that it be

'ग़ालिब' भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़रर नहीं
दुनिया हो या रब और मिरा बादशाह हो

if Gaalib's too no longer there, no loss would one obtain
Lord, let the world exist and let my emperor remain