EN اردو
तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में | शाही शायरी
tum garm mile humse na sarma ke dinon mein

ग़ज़ल

तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

;

तुम गर्म मिले हम से न सरमा के दिनों में
पेश आए ब-गर्मी भी तो गरमा के दिनों में

जब आई ख़िज़ाँ हम को कहा ''बाग़ चलो हो''
पूछा न कभी सैर ओ तमाशा के दिनों में

ने ग़ुर्फ़े से झाँका न कभी बाम पर आए
पिन्हाँ रहे तुम हुस्न-ए-दिल-आरा के दिनों में

जी ही में रखी अपने मियाँ जी से जो उपजी
कुछ हम ने कहा तुम से तमन्ना के दिनों में

लिख लिख के उसे यारों ने दीवान बनाया
कुछ कुछ जो बका करते थे सौदा के दिनों में

दिल अपना उलझता था तभी जिन दिनों प्यारे
थी ज़ुल्फ़ तिरी तुर्रा-ए-लैला के दिनों में

मुफ़्लिस हुए ऐ 'मुसहफ़ी' अफ़सोस कि हम ने
पैदा न किया यार को पैदा के दिनों में