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टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो | शाही शायरी
Tuk to KHamosh rakho munh mein zaban sunte ho

ग़ज़ल

टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो

क़ाएम चाँदपुरी

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टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो
अपनी ही कहते हो मेरी भी मियाँ सुनते हो

संग को आब करें पल में हमारी बातें
लेकिन अफ़सोस यही है कि कहाँ सुनते हो

ख़ुश्क ओ तर फूँकती फिरती है सदा आतिश-ए-इश्क़
बचियो इस आँच से ऐ पीर ओ जवाँ सुनते हो

दम-क़दम तक थी हमारे ही जुनूँ की रौनक़
अब भी कूचों में कहीं शोर-ओ-फ़ुग़ाँ सुनते हो

मैं कहा ख़ल्क़ तुम्हारी जो कमर कहती है
तुम भी इस का कहीं कुछ ज़िक्र-ओ-बयाँ सुनते हो

हँस के यूँ कहने लगा ख़ैर अगर है ये बात
हुएगी वैसी ही जैसी कि वहाँ सुनते हो

हज़रत-ए-'दर्द' की ख़िदमत में जब आ 'क़ाएम' ने
अर्ज़ कि ये कि ऐ उस्ताद-ए-ज़माँ सुनते हो

अम्र होवे तो 'हिदायत' को करूँ मैं सीधा
वाँ से इरशाद हुआ ये कि मियाँ सुनते हो

रास्त होते हैं किसी से भी कभू कज-तीनत
तीर बनती है कहीं शाख़-ए-कमाँ सुनते हो