तुझे 'कलीम' कोई कैसे ख़ुश-कलाम कहे
जो दिन को रात बताए सहर को शाम कहे
पिए बग़ैर कहो तो ये तिश्ना-काम कहे
वो राज़-ए-मय जो सुराही कहे न जाम कहे
न जाने रूठ के बैठा है दिल का चैन कहाँ
मिले तो उस को हमारा कोई सलाम कहे
कहूँ जो बरहमन ओ शैख़ से हक़ीक़त-ए-इश्क़
ख़ुदा ख़ुदा ये पुकारे वो राम राम कहे
मैं ग़म की रागनी बे-वक़्त भी अगर छेड़ूँ
ज़बान-ए-वक़्त मुझे वक़्त का इमाम कहे
ग़ज़ल
तुझे 'कलीम' कोई कैसे ख़ुश-कलाम कहे
कलीम आजिज़