तुझ से बिगड़ी जो ज़रा में अपनी
सुब्हें अपनी हैं न शामें अपनी
आप ने भी न मनाया आख़िर
क़ैद थे हम भी अना में अपनी
दोस्त हैं अपने मेहरबाँ कितने
संग-बारी है दिशा में अपनी
कौन कैसे गिरा दे धोके से
थामे रहिएगा लगामें अपनी
रोज़ उठता है जनाज़ा अपना
रोज़ जलते हैं चिता में अपनी
और बाक़ी बचा है क्या 'फ़ारूक़'
तुझ को माँगा जो दुआ में अपनी

ग़ज़ल
तुझ से बिगड़ी जो ज़रा में अपनी
फ़ारूक़ रहमान