तुझ से बढ़ कर कोई प्यारा भी नहीं हो सकता
पर तिरा साथ गवारा भी नहीं हो सकता
रास्ता भी ग़लत हो सकता है मंज़िल भी ग़लत
हर सितारा तो सितारा भी नहीं हो सकता
पाँव रखते ही फिसल सकता है मिट्टी हो कि रेत
हर किनारा तो किनारा भी नहीं हो सकता
उस तक आवाज़ पहुँचनी भी बड़ी मुश्किल है
और न देखे तो इशारा भी नहीं हो सकता
तेरे बंदों की मईशत का अजब हाल हुआ
ऐश कैसा कि गुज़ारा भी नहीं हो सकता
अपना दुश्मन ही दिखाई नहीं देता हो जिसे
ऐसा लश्कर तो सफ़-आरा भी नहीं हो सकता
पहले ही लज़्ज़त-ए-इंकार से वाक़िफ़ नहीं जो
उस से इंकार दोबारा भी नहीं हो सकता
हुस्न ऐसा कि चका-चौंद हुई हैं आँखें
हैरत ऐसी कि नज़्ज़ारा भी नहीं हो सकता
चलिए वो शख़्स हमारा तो कभी था ही नहीं
दुख तो ये है कि तुम्हारा भी नहीं हो सकता
दुनिया अच्छी भी नहीं लगती हम ऐसों को 'सलीम'
और दुनिया से किनारा भी नहीं हो सकता
ग़ज़ल
तुझ से बढ़ कर कोई प्यारा भी नहीं हो सकता
सलीम कौसर