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तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला | शाही शायरी
tujh pe khul jae ki kya mehr ko shabnam se mila

ग़ज़ल

तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला

रविश सिद्दीक़ी

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तुझ पे खुल जाए कि क्या मेहर को शबनम से मिला
आँख ऐ हुस्न-ए-जहाँ-ताब ज़रा हम से मिला

वो मसर्रत जिसे कहते हैं नशात-ए-अबदी
उस मसर्रत का ख़ज़ाना भी तिरे दम से मिला

वहदत-ए-सूरत-ओ-मअ'नी को समझ ऐ वाइज़
हुस्न-ए-यज़्दाँ का तसव्वुर रुख़-ए-आदम से मिला

अहल-ए-वहशत से ये तज़ईन-ए-जहाँ क्या होती
ये सलीक़ा भी तिरे गेसू-ए-बरहम से मिला

हम-नशीं सोज़-ए-ग़म-ए-दिल कहीं महदूद नहीं
कभी शोलों से मिला है कभी शबनम से मिला

लड़खड़ाना भी है तकमील-ए-सफ़र की तम्हीद
हम को मंज़िल का निशाँ लग़्ज़िश-ए-पैहम से मिला

वज़्अ-दारी इसे कहिए कि हरम में भी 'रविश'
ख़ुद ही बढ़ कर किसी ग़ारत-गर-ए-आलम से मिला