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तुझ पे हम इक किताब लिख बैठे | शाही शायरी
tujh pe hum ek kitab likh baiThe

ग़ज़ल

तुझ पे हम इक किताब लिख बैठे

मंसूर ख़ुशतर

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तुझ पे हम इक किताब लिख बैठे
इस को कार-ए-सवाब लिख बैठे

दोस्तों के सुलूक को भी हम
आज कोई अज़ाब लिख बैठे

उस को लिखना था कम-नज़र लेकिन
हाए आली-जनाब लिख बैठे

हम को लिखनी थी इक ग़ज़ल लेकिन
अपने ग़म का हिसाब लिख बैठे

तेरी क़ामत की बात जब आई
हुस्न का इक निसाब लिख बैठे

गरचे ख़त का है इंतिज़ार अभी
फिर भी हम हैं जवाब लिख बैठे

ख़त में अलक़ाब उस को ऐ 'ख़ुशतर'
ताज़ा रंगीं गुलाब लिख बैठे