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तुझ में कब हुस्न-ए-बहार-ए-गुल की रानाई न थी | शाही शायरी
tujh mein kab husn-e-bahaar-e-gul ki ranai na thi

ग़ज़ल

तुझ में कब हुस्न-ए-बहार-ए-गुल की रानाई न थी

जौहर ज़ाहिरी

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तुझ में कब हुस्न-ए-बहार-ए-गुल की रानाई न थी
कब तिरे जल्वों की इक दुनिया तमाशाई न थी

ज़िंदगी भर आरज़ू का ख़ून ही होता रहा
लब पे लेकिन एक दिन भी आह तक आई न थी

इश्क़ है इक आतिश-ए-दिल-सोज़ में जलने का नाम
हम को तो रोज़-ए-अज़ल ये बात समझाई न थी

हम रहे हैं मंज़िलों ही मंज़िलों में उम्र भर
जैसे क़िस्मत में किसी पहलू शकेबाई न थी

इक चमन क्या दो जहाँ की आफ़तों से दूर था
ग़ुंचा-ए-नौरस के लब तक जब हँसी आई न थी

क्या कहूँ 'जौहर' जो मेरे जान-ओ-दिल पर बन गई
मौत का पैग़ाम था इक शाम-ए-तन्हाई न थी