EN اردو
तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली | शाही शायरी
tujhko to quwwat-e-izhaar zamane se mili

ग़ज़ल

तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली

अनवर सदीद

;

तुझ को तो क़ुव्वत-ए-इज़हार ज़माने से मिली
मुझ को आज़ादा-रवी ख़ून जलाने से मिली

क़र्या-ए-जाँ की तरह उन पे उदासी थी मुहीत
दर-ओ-दीवार को रौनक़ तिरे आने से मिली

यूँ तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
दिल को तस्कीन तिरे लौट के आने से मिली

मैं ख़िज़ाँ-दीदा शजर की तरह गुमनाम सा था
मुझ को वक़अत तिरी तस्वीर बनाने से मिली

शाख़-ए-एहसास पे जो फूल खिले हैं उन को
ज़िंदगी हुस्न का इदराक बढ़ाने से मिली

जागती आँख से जो ख़्वाब था देखा 'अनवर'
उस की ताबीर मुझे दिल के जलाने से मिली