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तुझ को सोचूँ मैं सू-ब-सू हो कर | शाही शायरी
tujhko sochun main su-ba-su ho kar

ग़ज़ल

तुझ को सोचूँ मैं सू-ब-सू हो कर

नाज़ बट

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तुझ को सोचूँ मैं सू-ब-सू हो कर
मैं तो बस रह गई हूँ तू हो कर

ये तिरे लम्स का करिश्मा है
फैल जाती हूँ रंग-ओ-बू हो कर

तू न हो तो मैं बाँझ मिट्टी हूँ
राख हो जाऊँ बे-नुमू हो कर

है तिरी क़ैद में ही आज़ादी
ढाँप ले मुझ को चार सू हो कर

आइना हूँ तिरे वजूद का मैं
आ कभी देख रू-ब-रू हो कर

'नाज़' के लब पे हर घड़ी रक़्साँ
तू ही रहता है गुफ़्तुगू हो कर