तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को
मैं ने महफ़ूज़ समझ रक्खा था तन्हाई को
जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है
ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को
अपनी दरियाई पे इतरा न बहुत ऐ दरिया
एक क़तरा ही बहुत है तिरी रुस्वाई को
चाहे जितना भी बिगड़ जाए ज़माने का चलन
झूट से हारते देखा नहीं सच्चाई को
साथ मौजों के सभी हों जहाँ बहने वाले
कौन समझेगा समुंदर तिरी गहराई को
अपनी तन्हाई भी कुछ कम न थी मसरूफ़ 'वसीम'
इस लिए छोड़ दिया अंजुमन-आराई को
ग़ज़ल
तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को
वसीम बरेलवी