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तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को | शाही शायरी
tujhko socha to pata ho gaya ruswai ko

ग़ज़ल

तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को

वसीम बरेलवी

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तुझ को सोचा तो पता हो गया रुस्वाई को
मैं ने महफ़ूज़ समझ रक्खा था तन्हाई को

जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है
ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को

अपनी दरियाई पे इतरा न बहुत ऐ दरिया
एक क़तरा ही बहुत है तिरी रुस्वाई को

चाहे जितना भी बिगड़ जाए ज़माने का चलन
झूट से हारते देखा नहीं सच्चाई को

साथ मौजों के सभी हों जहाँ बहने वाले
कौन समझेगा समुंदर तिरी गहराई को

अपनी तन्हाई भी कुछ कम न थी मसरूफ़ 'वसीम'
इस लिए छोड़ दिया अंजुमन-आराई को