तुझ को ख़िफ़्फ़त से बचा लूँ पानी
तिश्नगी अपनी छुपा लूँ पानी
ख़ाक उड़ती है हर इक चेहरे पर
किस की आँखों से निकालूँ पानी
धूप दरिया पे नज़र रखती है
तुझ को कूज़े में छुपा लूँ पानी
उड़ते फिरते हैं सरों पर बादल
ख़्वाब आँखों में बसा लूँ पानी
रोज़ बच्चों को सुला दूँ यूँही
रोज़ पत्थर को उबालूँ पानी
आग से खेलता है कल मुझ को
आ तुझे अपना बना लूँ पानी
ख़ारज़ारों पे चलूँ नंगे पाँव
ख़ुश्क धरती की दुआ लूँ पानी
सब्र की हद भी तो कुछ होती है
कितना पलकों पे सँभालूँ पानी
भूल जाऊँ न कहीं तैराकी
क्यूँ न कश्ती ही जला लूँ पानी
अपनी वहशत का इक इज़हार सही
कर के सर्द आग जला लूँ पानी
ज़ख़्म हो फूल हो या अँगारा
हो जो रौशन तो बुला लूँ पानी
शर्त है तेरी रिफ़ाक़त वर्ना
वक़्त की आग में डालूँ पानी
आग मतलूब-ए-लब-ए-तिश्ना है
मैं तुझे कैसे बुला लूँ पानी
चश्म-ए-अहबाब जो हो ख़ुश्क 'अता'
ख़ून को अपने बना लूँ पानी
ग़ज़ल
तुझ को ख़िफ़्फ़त से बचा लूँ पानी
अता आबिदी