तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात बे-तरह
जूँ-तूँ के दिन तो गुज़रे है पर रात बे-तरह
होती है एक तरह से हर काम की जज़ा
आमाल-ए-इश्क़ की है मुकाफ़ात बे-तरह
बुलबुल कर उस चमन में समझ कर टुक आशियाँ
सय्याद लग रहा है तिरी घात बे-तरह
पूछा पयाम-बर से जो मैं यार का जवाब
कहने लगा ख़मोश कि है बात बे-तरह
मिलने न देगा हम से तुझे एक-दम रक़ीब
पीछे लगा फिरे है वो बद-ज़ात बे-तरह
कोई ही मोर है तो रहे इस में शैख़-जी
दाढ़ी पड़ी है शाने के अब हाथ बे-तरह
'सौदा' न मिल कर अपनी तू अब ज़िंदगी पे रहम
है उस जवाँ की तर्ज़-ए-मुलाक़ात बे-तरह
ग़ज़ल
तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात बे-तरह
मोहम्मद रफ़ी सौदा