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तुझ बेवफ़ा की आह कोई चाह क्या करे | शाही शायरी
tujh bewafa ki aah koi chah kya kare

ग़ज़ल

तुझ बेवफ़ा की आह कोई चाह क्या करे

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार

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तुझ बेवफ़ा की आह कोई चाह क्या करे
दिल तुझ को दे के तू ही बता आह क्या करे

जिस दिल-जले की तुझ से लगे शम्अ-साँ लगन
सर से वो गुज़रे और तू वल्लाह क्या करे

ज़ारी फ़ुग़ाँ ओ नाला सभी बे-असर हैं आह
इस संग-दिल के दिल में कोई राह क्या करे

इस माह-ए-कूचा-गर्द के तईं ढूँढता हुआ
हर शब गली गली न फिरे आह क्या करे

याक़ूब की तरह तो बहुत रोए देखिए
ऐ यूसुफ़-ए-ज़माना तिरी चाह क्या करे

जाते हैं सू-ए-दैर रह-ए-काबा छोड़ कर
हक़ में हमारे देखिए अल्लाह क्या करे

कोई ढूँढता कताँ के तईं यारो पर है ग़म
मिलता कहीं नहीं दिल-ए-आगाह क्या करे

की दिल ने दिल-बरान-ए-जहाँ की बहुत तलाश
कोई दिल-रुबा मिला है न दिल-ख़्वाह क्या करे

इस कू-ए-ज़ुल्फ़ में ऐ 'जहाँदार' जा फँसा
दिल किस तरह से गुम न करे राह क्या करे