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तोशा-ए-धूप से जिस्मों को तराशे सूरज | शाही शायरी
tosha-e-dhup se jismon ko tarashe suraj

ग़ज़ल

तोशा-ए-धूप से जिस्मों को तराशे सूरज

मोनी गोपाल तपिश

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तोशा-ए-धूप से जिस्मों को तराशे सूरज
कभी पत्थर पे भी कुछ नक़्श उभारे सूरज

मुद्दतें गुज़रीं अँधेरों में बसर करता हूँ
मेरी बस्ती में कभी कोई उगाए सूरज

मैं कि गिर्वीदा-ए-शब हूँ ये बजा हम-नफ़सो
पर कभी आ के सदाएँ दे पुकारे सूरज

शब के दामन में भी हैं चाँद सितारे लेकिन
धूप पहलू में लिए आँख दिखाए सूरज

तेरी यादों का करम मेरी निगाहों की 'तपिश'
थक गया हूँ मिरी पलकों से उठाए सूरज