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तोड़ कर शीशा-ए-दिल को मिरे बर्बाद न कर | शाही शायरी
toD kar shisha-e-dil ko mere barbaad na kar

ग़ज़ल

तोड़ कर शीशा-ए-दिल को मिरे बर्बाद न कर

गुहर खैराबादी

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तोड़ कर शीशा-ए-दिल को मिरे बर्बाद न कर
इस तरह मुझ पे सितम ऐ सितम-ईजाद न कर

ये निगह लुत्फ़ की है इस से न कर क़त्ल मुझे
चश्म-ए-जाँ-बख़्श को यूँ ख़ंजर-ए-जल्लाद न कर

रू-ए-रौशन की कभी दीद मुझे भी दीदे
रह के पोशीदा मुझे मुज़्तर-ओ-नाशाद न कर

तेरे ही दिल का अगर गोशा क़फ़स है सय्याद
फिर तो हरगिज़ मुझे इस क़ैद से आज़ाद न कर

जब यहाँ सुनता नहीं तेरी फ़ुग़ाँ कोई 'गुहर'
मस्लहत जान ख़मोशी ही में फ़रियाद न कर