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तिश्ना-ए-तकमील है वहशत का अफ़्साना अभी | शाही शायरी
tishna-e-takmil hai wahshat ka afsana abhi

ग़ज़ल

तिश्ना-ए-तकमील है वहशत का अफ़्साना अभी

ग्यान चन्द मंसूर

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तिश्ना-ए-तकमील है वहशत का अफ़्साना अभी
वाक़िफ़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है तेरा दीवाना अभी

क्यूँ न हो क़ुर्बान शम्-ए-हुस्न के जल्वों पे दिल
अपने जल्वों से है ना-वाक़िफ़ ये परवाना अभी

गुल चराग़-ए-दैर है ख़ामोश है शम-ए-हरम
साक़िया रौशन है तेरे दम से मय-ख़ाना अभी

या तजल्ली तूर की है ख़ुद हिजाब-अंदर-हिजाब
या नहीं ज़ौक़-ए-नज़र अपना कलीमाना अभी

दूर है मंज़िल मिरी इक जाम ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
राह में आएँगे का'बा और बुत-ख़ाना अभी

दास्ताँ 'मंसूर' की बे-कैफ़ हो सकती नहीं
मुद्दतों दोहराएगी दुनिया ये अफ़्साना अभी