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तिरी ज़ुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म देखते हैं | शाही शायरी
teri zulf ke pech-o-KHam dekhte hain

ग़ज़ल

तिरी ज़ुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म देखते हैं

सुदर्शन कुमार वुग्गल

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तिरी ज़ुल्फ़ के पेच-ओ-ख़म देखते हैं
हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं

ये हालत हुई है जुनूँ में हमारी
ख़ुशी देखते हैं न ग़म देखते हैं

बहुत देख ली है ज़माने की गर्दिश
मुक़द्दर का अब ज़ेर-ओ-बम देखते हैं

तसव्वुर में हैं जिन के जल्वे तुम्हारे
वो हुस्न-ए-दो-आलम को कम देखते हैं

झगड़ते हैं शैख़-ओ-बरहमन मगर हम
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं

सर-ए-बज़्म है एहतियात आज ऐसी
न तुम देखते हो न हम देखते हैं

किसी चश्म-ए-मयगूँ में हम आज 'रिफ़अत'
छलकते हुए जाम-ए-जम देखते हैं