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तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है | शाही शायरी
teri ulfat mein jitni meri zillat baDhti jati hai

ग़ज़ल

तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है

वासिफ़ देहलवी

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तिरी उल्फ़त में जितनी मेरी ज़िल्लत बढ़ती जाती है
क़सम है रब्ब-ए-इज़्ज़त की कि इज़्ज़त बढ़ती जाती है

ख़ुदाया ख़ैर हो मामूर-हा-ए-रुब मिस्कीं की
कि अब दिल खोल कर रोने की आदत बढ़ती जाती है

किसी को याद कर के एक दिन ख़ल्वत में रोया था
नहीं मालूम क्यूँ जब से नदामत बढ़ती जाती है

कहाँ ताक़त सुनाने की किसे फ़ुर्सत है सुनने की
कि मुज्मल होते होते भी हिकायत बढ़ती जाती है

कहाँ मैं और कहाँ तेरी निगाह-ए-लुत्फ़ ऐ साक़ी
ख़ुदा जाने ये क्यूँ मुझ पर इनायत बढ़ती जाती है

ये मेरा शीशा-ए-दिल है ख़ज़फ़-रेज़ा नहीं हमदम
शिकस्ता जिस क़दर होता है क़ीमत बढ़ती जाती है

इधर तहसीन-ए-आराइश की ख़्वाहिश हुस्न-ए-ख़ुद-बीं को
यहाँ जज़्बात-ए-पिन्हाँ की हिफ़ाज़त बढ़ती जाती है

ग़ज़ब का जज़्ब है 'वासिफ़' निगाह-ए-मस्त में उस की
मनाज़िल क़त्अ होते हैं अज़ीमत बढ़ती जाती है