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तिरी तरफ़ से दिल ऐ जान-ए-जाँ उठा न सके | शाही शायरी
teri taraf se dil ai jaan-e-jaan uTha na sake

ग़ज़ल

तिरी तरफ़ से दिल ऐ जान-ए-जाँ उठा न सके

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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तिरी तरफ़ से दिल ऐ जान-ए-जाँ उठा न सके
बहुत ज़ईफ़ थे बार-ए-गराँ उठा न सके

हज़ार बार बहार आई लेकिन ऐ सय्याद
निगाह हम तरफ़-ए-बोस्ताँ उठा न सके

असीर-ए-ज़ुल्फ़ जो मरते हैं तो वो कहते हैं
ज़रा भी सदमा-ए-क़ैद-ए-गिराँ उठा न सके

सुनीं जो यार की बातें ग़श आ गया हम को
ये ना-तवाँ थे कि लुत्फ़-ए-बयाँ उठा न सके