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तिरी शिकस्त है ज़ाहिर तिरा ज़वाल अटल | शाही शायरी
teri shikast hai zahir tera zawal aTal

ग़ज़ल

तिरी शिकस्त है ज़ाहिर तिरा ज़वाल अटल

कुमार पाशी

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तिरी शिकस्त है ज़ाहिर तिरा ज़वाल अटल
यही है तेरा मुक़द्दर कि अपनी आग में जल

ख़ता कि तू ने की यारों के क़त्ल की ख़्वाहिश
सज़ा कि अपने जनाज़े को ख़ुद उठा कर चल

किसी तरह से मिटा दे ये नक़्श-हा-ए-यक़ीं
किसी तरह से भी इस शहर-ए-आरज़ू से निकल

सितम कि टूट रहा है तिलसम-ए-हर्फ़-ओ-नवा
फ़ुग़ाँ कि बुझने लगी है ख़याल की मशअ'ल

'एलीनापा' भी नहीं और वो बेवफ़ा भी नहीं
सुनाएँ शहर में 'पाशी' किसे ये ताज़ा ग़ज़ल