तिरी सदा का है सदियों से इंतिज़ार मुझे 
मिरे लहू के समुंदर ज़रा पुकार मुझे 
मैं अपने घर को बुलंदी पे चढ़ के क्या देखूँ 
उरूज-ए-फ़न मिरी दहलीज़ पर उतार मुझे 
उबलते देखी है सूरज से मैं ने तारीकी 
न रास आएगी ये सुब्ह-ए-ज़र-निगार मुझे 
कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूँगा 
ज़माना लाख करे आ के संगसार मुझे 
वो फ़ाक़ा-मस्त हूँ जिस राह से गुज़रता हूँ 
सलाम करता है आशोब-ए-रोज़गार मुझे
 
        ग़ज़ल
तिरी सदा का है सदियों से इंतिज़ार मुझे
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

