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तिरी क़ुर्बतें हैं सकूँ जान-ए-जानाँ | शाही शायरी
teri qurbaten hain sakun jaan-e-jaanan

ग़ज़ल

तिरी क़ुर्बतें हैं सकूँ जान-ए-जानाँ

नदीम गुल्लानी

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तिरी क़ुर्बतें हैं सकूँ जान-ए-जानाँ
वगर्ना मोहब्बत जुनूँ जान-ए-जानाँ

जो सोचूँ मैं हालात अपने वतन के
रगों में से रिसता है ख़ूँ जान-ए-जानाँ

अभी तक घनेरी सी चादर में हूँ मैं
किसी ज़ुल्फ़ का है फ़ुसूँ जान-ए-जानाँ

फ़साने मोहब्बत के ज़िंदा रहेंगे
मैं लिक्खूँ न चाहे लिखूँ जान-ए-जानाँ

तुम्हारी मोहब्बत का अब भी क़सम से
मिरे चार सू है फ़ुसूँ जान-ए-जानाँ

ख़रीदार तू हो तो ख़्वाहिश है मेरी
कि यूसुफ़ के तरह बिकूँ जान-ए-जानाँ

ज़माना तो कहता है कहता रहेगा
ये यूँ है ये यूँ है ये यूँ जान-ए-जानाँ