तिरी क़ुर्बतें हैं सकूँ जान-ए-जानाँ
वगर्ना मोहब्बत जुनूँ जान-ए-जानाँ
जो सोचूँ मैं हालात अपने वतन के
रगों में से रिसता है ख़ूँ जान-ए-जानाँ
अभी तक घनेरी सी चादर में हूँ मैं
किसी ज़ुल्फ़ का है फ़ुसूँ जान-ए-जानाँ
फ़साने मोहब्बत के ज़िंदा रहेंगे
मैं लिक्खूँ न चाहे लिखूँ जान-ए-जानाँ
तुम्हारी मोहब्बत का अब भी क़सम से
मिरे चार सू है फ़ुसूँ जान-ए-जानाँ
ख़रीदार तू हो तो ख़्वाहिश है मेरी
कि यूसुफ़ के तरह बिकूँ जान-ए-जानाँ
ज़माना तो कहता है कहता रहेगा
ये यूँ है ये यूँ है ये यूँ जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
तिरी क़ुर्बतें हैं सकूँ जान-ए-जानाँ
नदीम गुल्लानी