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तिरी निगाह की जब से मुआ'विनत न रही | शाही शायरी
teri nigah ki jab se muawinat na rahi

ग़ज़ल

तिरी निगाह की जब से मुआ'विनत न रही

सलीम सरफ़राज़

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तिरी निगाह की जब से मुआ'विनत न रही
किसी के दिल में मिरी क़द्र-ओ-मंज़िलत न रही

दो एक पल ही कोई मुझ पे मुल्तफ़ित था मगर
तमाम-उम्र किसी से मुख़ासमत न रही

रहा न क़ब्ज़ा तिरे दिल पे तो तअ'ज्जुब क्या
मिरी तो अपने इलाक़े पे सल्तनत न रही

कोई भी वाक़िआ' हो पुर-सुकूँ ही रहता है
लहू में पहली सी मौज-ए-मुज़ाहिमत न रही

ख़बर नहीं है वहाँ गुल खिले कि धूल उड़े
ग़ज़ाल-ए-दश्त से मेरी मुरासलत न रही

शह-ए-सुख़न से तिरे कौन मुत्तफ़िक़ न हो अब
कि मेरे बा'द सदा-ए-मुख़ालिफ़त न रही

'सलीम' लब पे सजाता था जैसे लफ़्ज़ वही
कि उस के बा'द सुख़न में वो तमकनत न रही