तिरी नज़र भी नहीं हर्फ़-ए-मुद्दआ भी नहीं 
ख़ुदा-गवाह मिरे पास कुछ रहा भी नहीं 
हज़ार मंज़िल-ए-ग़म से गुज़र चुके लेकिन 
अभी जुनून-ए-मोहब्बत की इब्तिदा भी नहीं 
ग़म-ए-फ़िराक़ ये शब किस तरह से गुज़रेगी 
कि अब तो आस की मौहूम सी ज़िया भी नहीं 
न जाने किस लिए अब भी है दिल से बढ़ के अज़ीज़ 
सियाह-दिल भी नहीं और पारसा भी नहीं 
जो सच कहूँ तो मोहब्बत-शिआर 'अजमल' में 
हज़ार ऐब सही आदमी बुरा भी नहीं
        ग़ज़ल
तिरी नज़र भी नहीं हर्फ़-ए-मुद्दआ भी नहीं
अजमल अजमली

