तिरी महफ़िल से उठ कर इश्क़ के मारों पे क्या गुज़री 
मुख़ालिफ़ इक जहाँ था जाने बेचारों पे क्या गुज़री 
सहर को रुख़्सत-ए-बीमार-ए-फ़ुर्क़त देखने वालो 
किसी ने ये भी देखा रात भर तारों पे क्या गुज़री 
सुना है ज़िंदगी वीरानियों ने लूट ली मिल कर 
न जाने ज़िंदगी के नाज़-बरदारों पे क्या गुज़री 
हँसी आई तो है बे-कैफ़ सी लेकिन ख़ुदा जाने 
मुझे मसरूर पा कर मेरे ग़म-ख़्वारों पे क्या गुज़री 
ये ज़ाहिद हैं इन्हें क्या तजरबा एजाज़-ए-उल्फ़त का 
ये तो जन्नत में भी पूछें गुनहगारों पे क्या गुज़री
        ग़ज़ल
तिरी महफ़िल से उठ कर इश्क़ के मारों पे क्या गुज़री
शकील बदायुनी

