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तिरी जब नींद का दफ़्तर खुला था | शाही शायरी
teri jab nind ka daftar khula tha

ग़ज़ल

तिरी जब नींद का दफ़्तर खुला था

विशाल खुल्लर

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तिरी जब नींद का दफ़्तर खुला था
यक़ीनन एक इक मंज़र खुला था

उसे तुम चाँद से तश्बीह देना
कि उस के हाथ में ख़ंजर खुला था

सुना दीवार-ओ-दर क्या कह रहे हैं
हमारी पीठ पर नश्तर खुला था

नहीं कि तंग थीं अपनी क़बाएँ
तुम्हारे जिस्म का पैकर खुला था

बदलते मौसमों की तान टूटी
घटाओं पर मिरा साग़र खुला था

परी-पैकर से जब भी बात होती
मज़े की बात है अक्सर खुला था

किसी के हाथ सोए थे सिरहाने
किसी के हाथ में ख़ंजर खुला था

उड़ानें जब भी थीं महदूद 'खुल्लर'
हमारे नाम का शह-पर खुला था