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तिरी गली सी किसी भी गली की शान नहीं | शाही शायरी
teri gali si kisi bhi gali ki shan nahin

ग़ज़ल

तिरी गली सी किसी भी गली की शान नहीं

फख्र ज़मान

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तिरी गली सी किसी भी गली की शान नहीं
कि इस ज़मीन पे सुनते हैं आसमान नहीं

मिज़ा से बढ़ के नहीं है जो कोई तीर-ए-हसीं
तुम्हारे अबरू से दिलकश कोई कमान नहीं

सिसक रहे हैं जो सड़कों पे सैंकड़ों इंसाँ
तुम्हारे शहर में शायद कोई मकान नहीं

यहीं बहिश्त है यारो यहीं है दोज़ख़ भी
कि इस जहान से आगे कोई जहान नहीं

मिरी ख़मोशी का मतलब नहीं क़रार-ओ-सुकूँ
भरा है दर्द से दिल ताक़त-ए-बयान नहीं

अदू को देते हैं तरजीह मुझ से ख़ादिम पर
बुरे-भले के परी-वश मिज़ाज-दान नहीं

हमारे शहर में हर एक इस तरह चुप है
कि जैसे मुँह में किसी शख़्स के ज़बान नहीं

ये अश्क मंज़िल-ए-आख़िर हैं इश्क़ की हमदम
कि इन सितारों से आगे कोई निशान नहीं

हो 'फ़ख़्र' ख़ाक मुझे क़ौम की तरक़्क़ी पर
जो फ़र्द-ए-क़ौम ये मज़दूर और किसान नहीं