तिरी गली में गए कितने माह ओ साल हुए
गुज़र गए कई मौसम हमें बहाल हुए
ज़बाँ में थी अभी लुक्नत कि हर्फ़-ए-इश्क़ कहा
लड़कपना था कि ज़ंजीर-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल हुए
मैं मुस्कुराता रहा और मुस्कुराता रहा
सवाल मुझ पे कई मेरे हस्ब-ए-हाल हुए
नहीं कि कोहकन ओ क़ैस का ज़माना नहीं
मगर ये बात कि ये लोग ख़ाल ख़ाल हुए
ठहर गया सवा नेज़े पे आन कर सूरज
गुज़र गईं कई सदियाँ हमें ज़वाल हुए
फिर उस की याद ने दस्तक दिल-ए-हज़ीं पर दी
फिर आँसुओं में निहाँ उस के ख़द-ओ-ख़ाल हुए
मिसाल-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा न उठ सके 'तहसीं'
ब-रंग-ए-सब्ज़ा हम इस दर्जा पाएमाल हुए
ग़ज़ल
तिरी गली में गए कितने माह ओ साल हुए
तहसीन फ़िराक़ी