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तिरी दोस्ती का कमाल था मुझे ख़ौफ़ था न मलाल था | शाही शायरी
teri dosti ka kamal tha mujhe KHauf tha na malal tha

ग़ज़ल

तिरी दोस्ती का कमाल था मुझे ख़ौफ़ था न मलाल था

आतिफ़ वहीद 'यासिर'

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तिरी दोस्ती का कमाल था मुझे ख़ौफ़ था न मलाल था
मिरा रोम रोम था हैरती मिरा दिल भी महव-ए-धमाल था

कोई शाख़-ए-गिर्या लिपट गई मिरे सूखते हुए जिस्म से
मैं ख़िज़ाँ की रुत में हरा हुआ ये ''दरूद'' ही में कमाल था

अभी रेग-ए-दश्त पे सब्त हैं सभी नक़्श मेरे सुजूद के
वो जो मारके का सबब हुआ वही हर्फ़-ए-हक़ मिरी ढाल था

मिरी राख में थीं कहीं कहीं मेरे एक ख़्वाब की किर्चियाँ
मेरे जिस्म-ओ-जाँ में छुपा हुआ तिरी क़ुर्बतों का ख़याल था

इन्ही हैरतों में बसर हुई न ख़बर हुई कि सहर हुई
ये तमाम अर्सा-ए-ज़िंदगी कि मुहीत-ए-शाम-ए-विसाल था