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तिरे सिवा मिरी हस्ती कोई जहाँ में नहीं | शाही शायरी
tere siwa meri hasti koi jahan mein nahin

ग़ज़ल

तिरे सिवा मिरी हस्ती कोई जहाँ में नहीं

साहिर देहल्वी

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तिरे सिवा मिरी हस्ती कोई जहाँ में नहीं
ये राज़ फ़ाश है हाँ से नहीं मैं हाँ में नहीं

जो ला-मकाँ है मुक़य्यद किसी मकाँ में नहीं
तअ'य्युनात निशाँ में हैं बे निशाँ में नहीं

सिफ़ात जल्वा-गह-ए-ज़ात है तजल्ली-ए-हुस्न
ये जिस्म जल्वा-गह-ए-जाँ है नूर-ए-जाँ में नहीं

ज़बान-ए-हाल से है कैफ़-ए-बे-ख़ुदी गोया
ये वो ज़मीं है कि जिस का निशाँ ज़माँ में नहीं

फ़रोग़-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ है जलवा-ए-पिंदार
हिजाब-ए-हस्ती-ए-मौहूम दरमियाँ में नहीं

निशाँ यक़ीं का दो-आलम में क़ल्ब-ए-साकिन है
क़रार वहम में आसूदगी गुमाँ में नहीं

मिरी फ़सुर्दा-दिली ने नए खिलाए हैं गुल
नहीं कि मौसम-ए-गुल मौसम-ए-ख़िज़ाँ में नहीं

मैं नंग-ए-देहली हूँ नंग-ए-सुख़न-वराँ 'साहिर'
असातिज़ा की ज़बाँ क्या करूँ दहाँ में नहीं