तिरे रुख़ का किसे सौदा नहीं है
गुल-ए-लाला तलक सहरा-नशीं है
फिरा है आप वो मह-रू हमारा
तिरा ऐ आसमाँ शिकवा नहीं है
कहीं ऐसा न हो उट्ठे न तलवार
यही डर है कि क़ातिल नाज़नीं है
न पूछो मेरे आँसू तुम न पूछो
कहेगा कोई तुम को ख़ोशा-चीं है
अदब से पा-बरहना फिरते हैं हम
जुनूँ फ़र्श-ए-इलाही ये ज़मीं है
बुरा सब दुश्मनों का चाहते हैं
मैं ख़ुश हूँ जैसे दिल अंदोह-गीं है
रहे मज़मून-ए-ग़म की तरह इस में
हमारा घर है या बैत-ए-हज़ीं है
जहाँ है जल्वा-गर वो ग़ैरत-ए-माह
इलाही आसमाँ है या ज़मीं है
बनाया तुझ को ऐसा ख़ूबसूरत
कि नाज़ाँ तुझ पे सूरत-आफ़रीं है
हैं इश्क़-ए-ज़ुल्फ़ में आ'ज़ा भी दुश्मन
हमारा हाथ मार-ए-आस्तीं है
न निकला बे तिरे मैं घर से बाहर
निगह तक चश्म में ख़ल्वत-नशीं है
फ़लक जो चाहे हम पर ज़ुल्म कर ले
अभी तो ज़ब्त-ए-आह-ए-आतिशीं है
पड़ा है तफ़रक़ा बे-ताबियों से
'वज़ीर' अब मैं कहीं हूँ दिल कहीं है
ग़ज़ल
तिरे रुख़ का किसे सौदा नहीं है
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

