तिरे कूचे का रहनुमा चाहता हूँ
मगर ग़ैर का नक़्श-ए-पा चाहता हूँ
जहाँ तक हो तुझ से जफ़ा चाहता हूँ
कि मैं इम्तिहान-ए-वफ़ा चाहता हूँ
ख़ुदा से तिरा चाहना चाहता हूँ
मेरा चाहना देख क्या चाहता हूँ
कहाँ रंग-ए-वहदत कहाँ ज़ौक़-ए-वसलत
मैं अपने को तुझ से जुदा चाहता हूँ
बराबर रही हद्द-ए-यार-ओ-मोहब्बत
किसी को मैं बे-इंतिहा चाहता हूँ
कहाँ है तिरी बर्क़-ए-जोश-ए-तजल्ली
कि मैं साज़-ओ-बर्ग-ए-फ़ना चाहता हूँ
वो जब खो चुके मुझ को हस्ती से अपनी
तो कहते हैं अब मैं मिला चाहता हूँ
जुनून-ए-मोहब्बत में पंद-ए-अदू क्या
भला मैं किसी का बुरा चाहता हूँ
तबीअत की मुश्किल-पसंदी तो देखो
हसीनों से तर्क-ए-वफ़ा चाहता हूँ
जो दिल मैं ने चाहा तो क्या ख़ाक चाहा
कि दिल भी तो बे-मुद्दआ चाहता हूँ
ये हसरत की लज़्ज़त ये ज़ौक़-ए-तमन्ना
शब-ए-वस्ल उन से हया चाहता हूँ
सिवा इस के मैं क्या कहूँ तुम से 'आसी'
कि दरवेश हो तुम दुआ चाहता हूँ
ग़ज़ल
तिरे कूचे का रहनुमा चाहता हूँ
आसी ग़ाज़ीपुरी