तिरे ख़याल ने एहसान ला-जवाब किया
नफ़स नफ़स को मिरे वक़्फ़-ए-इज़्तिराब किया
अदू का हर्फ़-ए-मलामत बना मिरी शोहरत
उसी ने ख़ाक के ज़र्रे को आफ़्ताब किया
तिरी नज़र को नज़र लग न जाए दुनिया की
भरे जहाँ में जो मेरा ही इंतिख़ाब किया
क़दम क़दम पे रही जुस्तजू-ए-नाम-ओ-नुमूद
इसी हवस ने हमें उम्र-भर ख़राब किया
अज़ल के दिन से अँधेरे मिरा मुक़द्दर थे
तिरी नज़र ने मुझे रश्क-ए-माहताब किया
गिला किया था तग़ाफ़ुल का 'चाँद' क्यूँ उस से
तुझी को अश्क-ए-नदामत ने आप आब किया
ग़ज़ल
तिरे ख़याल ने एहसान ला-जवाब किया
महेंद्र प्रताप चाँद

