तिरे जमाल-ए-हक़ीक़त की ताब ही न हुई
हज़ार बार निगह की मगर कभी न हुई
तिरी ख़ुशी से अगर ग़म में भी ख़ुशी न हुई
वो ज़िंदगी तो मोहब्बत की ज़िंदगी न हुई
कहाँ वो शोख़ मुलाक़ात ख़ुद से भी न हुई
बस एक बार हुई और फिर कभी न हुई
वो हम हैं अहल-ए-मोहब्बत कि जान से दिल से
बहुत बुख़ार उठे आँख शबनमी न हुई
ठहर ठहर दिल-ए-बेताब प्यार तो कर लूँ
अब उस के ब'अद मुलाक़ात फिर हुई न हुई
मिरे ख़याल से भी आह मुझ को बोद रहा
हज़ार तरह से चाहा बराबरी न हुई
हम अपनी रिंदी-ओ-ताअत पे ख़ाक नाज़ करें
क़ुबूल-ए-हज़रत-ए-सुल्ताँ हुई हुई न हुई
कोई बढ़े न बढ़े हम तो जान देते हैं
फिर ऐसी चश्म-ए-तवज्जोह हुई हुई न हुई
तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत तमाम दीदा-ओ-दिल
इस एहतिमाम पे भी शरह-ए-आशिक़ी न हुई
फ़सुर्दा-ख़ातिरी-ए-इश्क़ ऐ मआज़-अल्लाह
ख़याल-ए-यार से भी कुछ शगुफ़्तगी न हुई
तिरी निगाह-ए-करम को भी आज़मा देखा
अज़िय्यतों में न होनी थी कुछ कमी न हुई
किसी की मस्त-निगाही ने हाथ थाम लिया
शरीक-ए-हाल जहाँ मेरी बे-ख़ुदी न हुई
सबा ये उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहाँ सुब्ह ओ शाम ही न हुई
वो कुछ सही न सही फिर भी ज़ाहिद-ए-नादाँ
बड़े-बड़ों से मोहब्बत में काफ़िरी न हुई
इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मजबूरी
कि हम ने आह तो की उन से आह भी न हुई
ख़याल-ए-यार सलामत तुझे ख़ुदा रक्खे
तिरे बग़ैर कभी घर में रौशनी न हुई
गए थे हम भी 'जिगर' जल्वा-गाह-ए-जानाँ में
वो पूछते ही रहे हम से बात भी न हुई
ग़ज़ल
तिरे जमाल-ए-हक़ीक़त की ताब ही न हुई
जिगर मुरादाबादी