तिरे है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ की दीद सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का
यही है कुफ़्र आशिक़ का यही इस्लाम आशिक़ का
पिया पे क़दह-ए-लबरेज़ दे ऐ साक़ी-ए-मस्ताँ
तही तुझ दौर में अफ़सोस रहवे जाम आशिक़ का
हर इक याँ मंज़िल-ए-मक़्सूद को पहुँचे है तुझ से ही
मगर इक ख़ल्क़ में फ़िरक़ा है सौ नाकाम आशिक़ का
कभी माशूक़ को मरते न देखा दर पे आशिक़ के
यही बाक़ी है सर माशूक़ के इल्ज़ाम आशिक़ का
हुआ है ख़त 'नसीर' आग़ाज़ उस मह-रू के चेहरे पर
दो-चंद अब ये नज़र आता है कुछ अंजाम आशिक़ का
ग़ज़ल
तिरे है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ की दीद सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का
शाह नसीर