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तिरे है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ की दीद सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का | शाही शायरी
tere hai zulf o ruKH ki did subh-o-sham aashiq ka

ग़ज़ल

तिरे है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ की दीद सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का

शाह नसीर

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तिरे है ज़ुल्फ़ ओ रुख़ की दीद सुब्ह-ओ-शाम आशिक़ का
यही है कुफ़्र आशिक़ का यही इस्लाम आशिक़ का

पिया पे क़दह-ए-लबरेज़ दे ऐ साक़ी-ए-मस्ताँ
तही तुझ दौर में अफ़सोस रहवे जाम आशिक़ का

हर इक याँ मंज़िल-ए-मक़्सूद को पहुँचे है तुझ से ही
मगर इक ख़ल्क़ में फ़िरक़ा है सौ नाकाम आशिक़ का

कभी माशूक़ को मरते न देखा दर पे आशिक़ के
यही बाक़ी है सर माशूक़ के इल्ज़ाम आशिक़ का

हुआ है ख़त 'नसीर' आग़ाज़ उस मह-रू के चेहरे पर
दो-चंद अब ये नज़र आता है कुछ अंजाम आशिक़ का