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तिरे ग़ुरूर मिरे ज़ब्त का सवाल रहा | शाही शायरी
tere ghurur mere zabt ka sawal raha

ग़ज़ल

तिरे ग़ुरूर मिरे ज़ब्त का सवाल रहा

विजय शर्मा अर्श

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तिरे ग़ुरूर मिरे ज़ब्त का सवाल रहा
बिखर बिखर के तुझे चाहना कमाल रहा

वहीं पे डूबना आराम से हुआ मुमकिन
जहाँ पे मौज-ओ-सफ़ीने में ए'तिदाल रहा

नहीं कि शाम ढले तुम न लौटते लेकिन
तुम्हारी राह में सूरज ही ला-ज़वाल रहा

फिर अपना हाथ कलेजे पे रख लिया हम ने
फिर उस के पाँव की आहट का एहतिमाल रहा