तिरे गेसुओं के साए में जो एक पल रहा हूँ
अभी तक है याद मुझ को अभी तक बहल रहा हूँ
मैं वो रिंद-ए-नौ नहीं हूँ जो ज़रा सी पी के बहकूँ
अभी और और साक़ी कि मैं फिर सँभल रहा हूँ
नहीं ग़म न मिल सकेगी मुझे शैख़ तेरी जन्नत
मुझे आरज़ू नहीं है न मैं हाथ मल रहा हूँ
जो न मेरे काम आए जो न मेरी बात माने
मैं वो दिल बदल रहा हूँ मैं वो दिल बदल रहा हूँ
मुझे जादा-ए-तलब में रह-ए-पुर-ख़तर का क्या ग़म
कि क़दम जिधर उठे हैं उसी सम्त चल रहा हूँ
जो गिरा तो फिर उठूँगा कि जवाँ है अज़्म मेरा
मुझे तुम न दो सहारा मैं अगर फिसल रहा हूँ
वो दबा के मेरा दामन वो झुका के उन की नज़रें
नहीं भूलता ये कहना अभी मैं भी चल रहा हूँ
ग़ज़ल
तिरे गेसुओं के साए में जो एक पल रहा हूँ
अनीस अहमद अनीस