तिरे दीवाने हर रंग रहे तिरे ध्यान की जोत जगाए हुए
कभी निथरे सुथरे कपड़ों में कभी अंग भभूत रमाए हुए
उस राह से छुप छुप कर गुज़री रुत सब्ज़ सुनहरे फूलों की
जिस राह पे तुम कभी निकले थे घबराए हुए शरमाए हुए
अब तक है वही आलम दिल का वही रंग-ए-शफ़क़ वही तेज़ हवा
वही सारा मंज़र जादू का मेरे नैन से नैन मिलाए हुए
चेहरे पे चमक आँखों में हया लब गर्म ख़ुनुक छब नर्म नवा
जिन्हें इतने सुकून में देखा था वही आज मिले घबराए हुए
हम ने 'मुश्ताक़' यूँ ही खोला यादों की किताब-ए-मुक़द्दस को
कुछ काग़ज़ निकले ख़स्ता से कुछ फूल मिले मुरझाए हुए
ग़ज़ल
तिरे दीवाने हर रंग रहे तिरे ध्यान की जोत जगाए हुए
अहमद मुश्ताक़