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तिरे दयार में कोई भी हम-ज़बाँ न मिला | शाही शायरी
tere dayar mein koi bhi ham-zaban na mila

ग़ज़ल

तिरे दयार में कोई भी हम-ज़बाँ न मिला

मसऊद हुसैन ख़ां

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तिरे दयार में कोई भी हम-ज़बाँ न मिला
हज़ार नक़्श मिले कोई राज़दाँ न मिला

मैं सोचता हूँ कि ये भी हसीन हैं लेकिन
तसव्वुर-ए-रुख़-ए-जानाँ का इम्तिहाँ न मिला

ये सच नहीं है कि छुटने के बा'द जान-ए-विसाल
तुझे ज़मीं न मिली मुझ को आसमाँ न मिला

अदा-ए-ख़ास मिली और सला-ए-आम मिली
मगर कहीं भी वो अंदाज़-ए-जान-ए-जाँ न मिला

गदा-शनासी-ए-अहल-ए-करम मुसल्लम है
हम उठ के जिस के क़दम लें वो पासबाँ न मिला

जहाँ भी देखा वहीं पाया तुझ को जान-ए-विसाल
तिरी निगाह का परतव कहाँ कहाँ न मिला

वो दिल ही क्या जो मोहब्बत से आश्ना न हुआ
सफ़ीना क्या वो जिसे बहर-ए-बे-कराँ न मिला

किसे सुनाएँ ग़ज़ल बहर-ए-शरह-ए-दिल 'मसऊद'
कि इस दयार में कोई भी नुक्ता-दाँ न मिला