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तिरे चाँद जैसे रुख़ पर ये निशान-ए-दर्द क्यूँ हैं | शाही शायरी
tere chand jaise ruKH par ye nishan-e-dard kyun hain

ग़ज़ल

तिरे चाँद जैसे रुख़ पर ये निशान-ए-दर्द क्यूँ हैं

अलीम उस्मानी

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तिरे चाँद जैसे रुख़ पर ये निशान-ए-दर्द क्यूँ हैं
तिरे सुर्ख़ आरिज़ों के ये गुलाब ज़र्द क्यूँ हैं

तुझे क्या हुआ है आख़िर मुझे कम से कम बता तो
तिरी साँस तेज़ क्यूँ है तिरे हाथ सर्द क्यूँ हैं

तुझे ना-पसंद जो थे वही बे-विक़ार रहते
जो अज़ीज़ थे तुझे वो तिरे दर की गर्द क्यूँ हैं

वो किताब लाओ जिस में है बयान शान-ए-क़ौमी
मिरे दौर की ये क़ौमें ब-गिरफ़्त-ए-फ़र्द क्यूँ हैं

मुझे शक गुज़र रहा है तिरी चारा-साज़ियों पर
ऐ मसीह-ए-वक़्त बतला ये दिलों में दर्द क्यूँ हैं

जिन्हें याद थे फ़साने बहुत अपने बाज़ुओं के
ऐ 'अलीम' मुज़्महिल से वो दम-ए-नबर्द क्यूँ हैं